राम-काव्य परंपरा में गोस्वामी तुलसीदास का महत्त्व
राम काव्य-परंपरा में गोस्वामी तुलसीदास और उनके रामचरित मानस का स्थान वास्तव में हिंदी
साहित्य में सर्वोपरि है। हिंदी के मुसलमान कवि अब्दुर्रहीम खानखाना ने कभी ठीक ही कहा था कि―
"रामचरित मानस विमल संतन जीवन प्राण ।
हिंदुवान को बेदसम जगनहिं प्रगट कुरान ॥"
उसी रहोम कवि के कथन को एक विदेशी आलोचक डॉ० जे० एम० मैक्फी ने अपनी पुस्तक
"द रामायण
ऑफ तुलसीदास और द बाइबिल ऑफ नादर्न इंडिया' में एक बार फिर दुहराया है। वह कहते
हैं-"वस्तुतः पक्का साहित्य इसी प्रकार का सर्वव्यापक और सार्वकालिक प्रभाव डालता है। तुलसी का
'रामचरित मानस' हिंदी का 'क्लासिक' है। जिस रचना में भाषा मस्तिष्क और समाज-भावना की व्यापक
परिपक्वता होगी वह 'क्लासिक' कहा जायगा।" टी० एस इलियट ने अपने आलेख 'ह्वाट इज क्लासिक'
में यही प्रश्न खड़ा किया है।
भक्तिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में रचनाओं की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ काल है। वास्तव में यह
काल हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग है। इसी युग में हिंदी के दो अमर रचनाकार पैदा हुए एक सूर अरैर
दूसरे तुलसी। दोनों महान हैं और दोनों की रचनाएँ (खासकर 'सूर सागर' और 'रामचरित मानस' हिंदी
की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ हैं।, परंतु तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो तुलसी का व्यक्तित्व और कृतित्व महानतर है।
सूर ने केवल गीत लिखे, तुलसी ने गीतों (गीतावली) के साथ प्रबंध-काव्य (रामचरित मानस) भी लिखा।
तुलसी में गीति और प्रबंध दोनों काव्य-रूप लिखने की प्रतिभा है। सूर ने कृष्ण के केवल बाल और
किशोर-रूपों का चित्रण किया है, समस्त जीवन का नहीं । तुलसीदास ने राम के जीवन में संपूर्ण
मानव-जीवन को उपस्थित कर दिया है। उनकी भावुकता जीवन का कोना-कोना झांक आई है। उनके
'मानस' में जीवन का कोई भी पक्ष, मानव-चरित्र का कोई भी पहलू अछूता नहीं है। मानव-जीवन का
आदि, मध्य और अंत सभी यहाँ वर्णित हैं:
"यही मँह आदि, मध्य अवसान।"
तुलसी में विषय का विस्तार है। उनके यहाँ सभी रस परिपूर्णावस्था को आ गये हैं। बालकांड में वात्सल्य
रस, जनकपुर-प्रसंग में शृंगार की प्रधानता किंतु वहाँ भी मर्यादित शृंगार है। लक्ष्मण-परशुराम संवाद में रौद्र
और वीररस, लंका-दहन में अद्भुत और भयानक रस हैं। वास्तव में तुलसीदास सभी रसों के रससिद्ध
कवीश्वर हैं, जबकि चंद और भूषण मात्र वीररस तो सूर वात्सल्य और शृंगार के उस्ताद हैं।
इलियट ने कवि की तुलना नाटक के मंच से की है जिसके आगे हर तरह के दर्शक बैठे रहते हैं।
वास्तव में सफल कवि वह है जो अधिक से अधिक पाठकों तक अपने को पहुँचा पाता है। इस कसौटी
पर हिंदी कवियों में केवल तुलसीदास ठहरते हैं। तुलसी की पहुँच झोपड़ी से महल तक हैं। उनका
'मानस' सबका कंठहार है।
श्रेष्ठ कवि में कविता के दोनों पक्ष-भाव पक्ष और विभाव-पक्ष का समाहार होता है। जीवन के
मर्मस्थलों की पहचान, उनके अनुरूप अनुभूति और सम्यक् अभिव्यक्ति ये ही श्रेष्ठ कवि के तीन गुण होते
हैं। ये तीनों विशेषताएँ महाकवि तुलसी में जितने पुष्ट रूप में तुलसी में मिलती हैं, अन्यत्र कहीं नहीं।
वास्तव में तुलसी में परिस्थिति की गहरी और ईमानदार अनुभूति है। यही कारण है कि "मानस" में सभी
पात्रों का, चाहे वह साधु हो या खल पात्र, चित्रण स्वाभाविक हुआ है। तुलसी में अल अनुभूति के
गाम्भीर्य के साथ अभिव्यंजना की प्रबल क्षमता है। नारद-प्रसंग में उन्होंने हास्य के अनुरूप विलक्षण
शब्दावली का उपयोग किया है। करुणा से भींगी भाषा का रूप देखना चाहें तो दशरथ-मुत्यु का हाल
सुनिए दशरथ का हाल देखकर दुख को भी दुख लग गया था और धीरज का भी धीरज छूट गया था―
"सुन विलाप दुखहू दुख लागा।
धीरज हू कर धीरज भागा ।।"
तुलसी के एक-एक शब्द में लाक्षणिकता होती है।
कहा जाता है (पोप ने कहा था) कि कविता में केवल स्वर-माधुरी ही नहीं होनी चाहिये, बल्कि
उसमें तो ऐसे शब्दों का प्रयोग होना चाहिये जिनके उच्चारण मात्र से काव्य का अर्थ झंकृत हो जाय―
"द साउन्ड मस्ट इको टु द सेन्स"
काव्य का यह गुण भी हिंदी के अन्य कवियों की अपेक्षा तुलसी में अधिक मात्रा में है। तुलसी
के वर्षा-वर्णन को देखें―
"घन घमंड नभ गरजत घोरा।" अथवा
"दामिनी दमकि रही घन मांहीं।"
अर्थ और शब्द का ऐसा संयोग हिंदी के बिरले कवि में ही मिलेगा।
तुलसी का अधिकार काव्य के लगभग सभी छंदों पर समान रूप से था। छंदों की चुस्ती के साथ
ही अलंकारों की उपयुक्तता भी तुलसी में देखने लायक है। जिस तरह संस्कृत में "उपमा कालिदासस्य'
कहा जाता है उसी तरह हिंदी में "उपमा तुलसीदासस्य कहना चाहिये। उनकी उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ
सटीक होती हैं, क्योंकि वे व्यावहारिक जीवन से ली गयी हैं। वास्तव में तुलसी-साहित्य में कोई अलंकार
छूटा ही नहीं है। वह तो विचारों के साथ अलंकारों का अथाह महासागर है।
वास्तव में तुलसीदास हमारे देश के प्रथम राष्ट्रकवि हैं क्योंकि उन्होंने मृतप्राय जन-जीवन को
अमृत-दान दिया था।
हम रामचरित मानस को इसलिये भी 'क्लासिक' कहते हैं क्योंकि भाषा और भाव के जिस क्षेत्र
में इस प्रकार की 'क्लासिक' रचना हो जाती है वह क्षेत्र बहुत दिनों तक प्राय: बंजर हो जाता है और
बहुत दिनों तक उसमें साहित्य की फसल नहीं होती, जैसे उसका सारा रस निचुड़ गया हो। 'मानस' में
भी माना भाषा (अवधी) और भाव (राम काव्य) का सारा रस लगभग निचुड़ आया और इस प्रकार आज
तक राम-काव्य के क्षेत्र में दूसरी कोई वैसी रचना फिर नहीं आई।
तुलसी के महत्त्व का एक दूसरा पहलू भी है। उन्होंने अपने काव्य में भक्ति के साथ शील,
आचार, मर्यादा और लोक-संग्रह का संदेश सुनाकर हिंदू जाति में अपूर्व दृढ़ता उत्पन्न कर दी है। उन्होंने
वर्ण-व्यवस्था का पक्ष लेकर हिंदू समाज के लिये एक अभेद्य दुर्ग बना दिया और हिंदुओं और मुसलमानों
में मुसलमान धर्म के प्रचार को रोका । गोस्वामी जी ने हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों को भाषा में अवतीर्ण
कर उनका समाज में प्रचार किया और शैव तथा वैष्णव संप्रदाय के पारस्परिक मत-भेदों को दूर कर उनको
और भी संगठित कर दिया। संस्कृत के दुरूह होने कारण उसके द्वारा हिंदू धर्म के सिद्धांतों को उतना
व्यापक बनाना कठिन था; इसलिये तुलसी ने संस्कृत में ख्याति प्राप्त करने का लोभ संवरण कर हिंदी भाषा
को अपनाया। हिंदी (अवधी) में लिखने के कारण उनको तत्कालीन पंडित-समाज के विरोध का भी
सामना करना पड़ा, किंतु उन्होंने इसकी परवाह न की। वे उत्तम भाव चाहते थे, भाषा के पीछे वे नही
पड़े। वे इस संबंध में बड़े उदार और आधुनिक अर्थ में प्रगतिशील थे। उनका सिद्धांत था :
का भाषा का संस्कृत भाव चाहिये साँच।
काम जो आवे कामरी का ले करें कमाँच ।। (दोहाबली)
निश्चितरूपेण महाकवि तुलसी साहित्यिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से बेजोड़ हैं। 'रामचरित
मानस' और 'विनय पत्रिका' साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं वरन भारत की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में
भी ये अनुपम और अद्वितीय हैं। साहित्य और संस्कृति के इसी संगम के कारण तुलसी की पहुँच हर गली
और घर तक हो सकी है। इसलिये वे एक ओर जहाँ साहित्य-समाज में सर्वाधिक सम्मान के अधिकारी
बन सके वहीं दूसरी ओर वे व्यापक समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व के रूप में भी समादृत हो
सके हैं।
तुलसी का आविर्भाव हिंदू जाति की सर्वाधिक संकटापन्न सांस्कृतिक स्थिति में हुआ था। अपने
काव्य द्वारा ऐसे में उन्होंने जो प्रभाव पैदा किया तदर्थ 'नाभादास' जैसे तत्कालीन कवि ने उन्हें 'कलिकाल
का वाल्मीकि' स्मिथ जैसे इतिहासकार ने उन्हें "मुगलकाल का सबसे महान व्यक्ति' और ग्रियर्सन ने उन्हें
"बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक" स्वीकार किया था। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी इसीलिये कहते
हैं―"इन सारी उक्तियों का तात्पर्य यह है कि तुलसीदास असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और
महात्मा थे।"
★★★