संत-काव्य : दार्शनिक आधार
संत-काव्य प्रत्यक्षत या संत-मत की साहित्यिक अभिव्यक्ति है। संत-मत की प्रतिष्ठापना यद्यपि पन्द्रहवी
शताब्दी में ज्ञानमार्गी कबीर के द्वारा हुई परंतु बीज रूप में यह आठवीं शताब्दी में सिद्धों की वाणी तक में मिलता।
है। कालांतर में यही बीज नाथपंथ में अंकुरित हुआ, यही बाद में व्यापक संत-मत के रूप में परिणत हुआ।
अत: सिद्ध, नाथ और संत-मत में एक ही भावधारा का दिखाई पड़ना नितांत स्वाभाविक है। महामाहोपाध्याय
हरप्रसाद शास्त्री ने जब बौद्ध सहजयान के सिद्धाचार्यों के प्रति विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया तो जाना गया
कि बहुत-से सिद्धगण और नाथ-पंथ के आचार्य एक ही हैं। इस सूची में निर्गुण-मत के संतों के नाम भी जोड
दिये जा सकते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी मानते हैं कि “यदि कबीर आदि निर्गुण मतवादी संतों की
बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाय तो मालूम होगा कि यह संपूर्णत: भारतीय है और बौद्ध धर्म के अंतिम
सिद्धों और नाथ पंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा संबंध है।" वस्तुत: सिद्धमत में ही हमें संत-मत का
प्रारंभिक रूप मिलता है; नाथपंथ दोनों को मिलाने वाली कड़ी है।
ये सिद्धपंथी घट के भीतर योग-क्रिया के द्वारा 'अनहद नाद' सुनते थे; जिसकी आवाज डमरू की तरह
होती थी। इस प्रकार कबीर के पहले ही संत-मत की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। रामानंद के संसर्ग से ही
कबीर अद्वैतवाद, भक्ति और अहिंसा से प्रभावित हुए । सूफी की प्रेम-भावना का भी उनपर गहरा प्रभाव पड़ा।
इस तरह उपर्युक्त सभी मतों-वादों और धाराओं की परिणति संत-मत में हुई। यही संत-मत संत-काव्य में
साहितिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट हुआ है। जाहिर है, संत-काव्य में अभिव्यक्त संत-मत का भी अपना
दार्शनिक चिंतन है।
सच तो यह है कि संत-काव्य एक ऐसी निर्झरिणी है जिसमें कतिपय धाराएँ और उपधाराएँ आ मिली
हैं। उनमें सन्निहित वैचारिक अथच् दार्शनिक उपपत्तियों को यों रेखांकित किया जा सकता है―
(i) आदि तत्त्व एक है।
(ii) वह तत्त्व परमात्मा है।
(iii) परमात्मा सर्वव्यापी, घट-घट वासी है।
(iv) जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न अथवा उसी का अंशस्वरूप है।
(v) आत्मा कभी नष्ट नहीं होती।
(vi) शरीर क्षणभंगुर है।
(vii) विषय-सुख तुच्छ है।
(viii) संसार मिथ्या―माया का खेल है।
(ix) जब तक जीव माया मे लिपट रहता है तब तक यह आवागमन (जन्म-मरण) के चक्र में लिपटा
रहता है।
जब माया का अविद्यारूपी कुहासा फट जाता है तब परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
(xi) कोरे तर्क या वाद-विवाद में, प्रार्थना या कर्मकांड के आडम्बर से परमात्मा की प्राप्ति नहीं
हो सकती।
(xii) परमात्मा को बाहर खोजने की जरूरत नहीं; वह अपने ही अंदर मौजूद है।
(xiii) भक्ति या प्रेम से परमात्मा को वश में करो, जैसे प्रेमिका या पत्नी पुरुष को अभिभूत करती है।
(xiv) आत्मा और परमात्मा का मिलन ही सबसे बड़ा आनंद है। इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। जिसे
वह रस मिल गया वही जान सकता है। उसे फिर और किसी रस की चाह नहीं रहती।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि संत-काव्य (साहित्य) का मूल स्रोत है वेदांत दर्शन । संतों ने वेदांत
के प्रमुख सिद्धांतों को संस्कृत की पिटारी से निकाल उन्हें लोकभाषा के धागे में पिरोकर जनता के लिये
कंठी-माला तैयार कर दी है। रत्न, दर्शन-शास्त्र के हैं उनपर खराद-पालिश और मीनाकारी संत कावियों ने की
है। जो बातें दर्शनकारों ने शुष्क ढंग से कही हैं, उन्हें संतों ने काव्यात्मक रूप में सरसतापूर्वक कही हैं। श्रुति
में अद्वैतवाद के प्रतिपादक कतिपय वाच्य शब्द हैं। यथा-तत्त्वमसि, सोऽहम, अयमात्मा ब्रह्मा, सर्व खल्विदं ब्रह्म,
सर्वं ब्रह्ममयं जगत, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या एकं सत् विप्रं बहुधा वदति ।" इसी अद्वैत तत्त्व को नाना प्रकार के
दृष्टांतों के द्वारा समझाया गया है। जैसे मिट्टी के बने बर्तन (घड़े, कुड़वे आदि) मिट्टी रूपांतरण मात्र है; उसी
प्रकार इस संसार के भिन्न-भिन्न नाम रूपात्मक पदार्थ एक ही परमतत्व के आभास हैं; असली तत्व परब्रह्म या
परमात्मा ही है।" इसी तरह स्वर्ण-अलंकार, अग्नि-स्फुलिंग, नदी-तरंग, जल बुबुदं आदि उपमाओं के द्वारा
एक-अनेक का तात्त्विक अभेद दिखलाया गया है।
इसी अद्वैत तत्त्व को संतों ने भजन का रूप देकर बँजड़ी पर गाने लायक बना दिया, जैसे कबीरदास
कहते हैं―
हम तो एक-एक करि जाना।
दोइ कहै तिनही को दोजग जिन नाहन पहचाना ।
एकै पवन, एक ही पानी एक जोति संसार
एक ही खाक घड़े सब भाडे, एक ही सिरजन हारा।
रैदास कहते हैं―
सब में हरि है, हरि में सब है, हरि अपनी जिन जाना।
साखी नहीं और कोई दूसर जाननहार सयाना ।।
एक और संत कहते हैं―
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फुटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कहहि गियानी ।।
शांकर वेदांत के अनुसार यह जगत विवर्त्त या आभास मात्र है। जिस प्रकार रज्जु में सर्प का भ्रम होता
है उसी प्रकार एक अविकारी ब्रह्म में अनेक विकार आभासित होते हैं। यही भ्रम है। वस्तुतः माया के कारण
ही ऐसा होता है। माया ब्रह्म की अनिर्वचनीय शक्ति है। वह तरह-तरह के खेल दिखाकर हमें भुलावे में डालती
है। मायावी ईश्वर स्वयं अपनी माया से ठगा नहीं जाता । संतों ने कहा है―
माया महाठगिनी हम जानी—कबीर
"ठगिनी क्या नैना झमकावे"― कबीर
"माया चित्र-विचित्र विमोहित बिरला बूझे कोई"― नामदेव
परब्रह्म निर्गुण निराकार है। उसका पार नहीं पाया जा सकता । वेदों ने भी 'नेति-नेति' कहा है। संतों
ने भी इसी बात को भिन्न-भिन्न ढंग से कहा है―
"निर्गुण ब्रह्म है न्यारा
कोई समझे समझणहारा।"
इसी प्रकार और भी बहुत-से पद अज्ञेयतावाद या अनिर्वचनीयतावाद के संकेतक हैं―
"ख्याली तेरे ख्याल का कोई अंत न पावे
कब का खेल पसारिया कछु कहत न आवे।" ― सुंदरदास
कोरे तर्क या शुष्क विवाद से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। वह तो अनुभूति की वस्तु है। "नायमात्मा
प्रवचेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन"-कठोपनिषद् । इसे ही संत कहते हैं―
"पडित वाद वदन्ते झूठा"―कबीर
"कथनी वदणी सब जंजाल"― कबीर
"ज्ञान तहाँ जहँ द्वन्द्व न कोई
वाद-विवाद नहीं काहू सौं, गरक ग्यान में इतनी सोई।"― सुंदरदास
वैदिक कर्मकांड और हठयोग से क्रियाकलाप संत कवियों की दृष्टि में निरर्थक है। वे भक्ति-मार्ग को
सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। पलटूदास कहते हैं―
"एक भगति मैं जानौं और झूठ सब बात
और झूठ सब बात करें हठयोग अनारी ।"
परमात्मा सूक्ष्म एवं सर्वव्यापी है। उन्हें खोजने के लिये बाहर भटकने की जरूरत नहीं । वे तो हृदय में
निवास करते हैं। पलटूदास कहते हैं―
"साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास" या फिर इसे ही “पूँघट का पट खोल रेतोहे पिया मिलेंगे"
में भी कहा गया है।
वेदांत के अनुसार मुक्ति किसी नयी वस्तु की उपलब्धि नहीं है। ब्रह्म नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप है।
उस स्वरूप का साक्षात्कार होना ही मोक्ष है। इसे ही सुंदरदास यों प्रकट करते हैं―"मुक्ति तो धाखे की
निसानी।"
सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म के सर्वव्यापी होते हुए भी जीव आनंद की तलाश में विकल रहता है। संत
कहते हैं―
"पाणी में मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवे हांसी।"
विषयानंद को संतों ने घृणा की दृष्टि से देखा है। कामिनी और कंचन-ये दोनों 'क' उनकी दृष्टि में
कंटक स्वरूप हैं। संसार की असारता, काल की प्रबलता, देह की नश्वरता, इंद्रिय-सखो की तुच्छता,
मानव-जीवन की दुर्लभता, सत्संग की महत्ता एवं हरिभजन की आवश्यकता—ये सातों संत-संगीत के सात स्वर
हैं। विवेक, वैराग्य एवं ब्रह्मचर्य ये तीन बोल हैं। दम, यम और दान–ये तीन 'द' मानो तीन ताल हैं। और
इस संगीत का टेक है 'भगवद्भक्ति' । कहीं दास्य, कहीं सख्य और कहीं प्रेयसी-भाव । सूफी कवियों ने भी
परमात्मा को माशूका या प्रेमिका के रूप में जाना है। संत कवियों ने अधिकतर उन्हें प्रिय पुरुष के रूप में देखा,
खुद को पतिव्रता पत्नी के रूप में। कबीर कहते हैं-"राम मेरो पिउ मैं राम की बहुरिया।"
वृहदारण्यक उपनिषद में दाम्पत्य-रति की उपमा देकर परमात्मा में लीन होने के आनंद की उपमा दी
गयी हैं―
"यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वकतो न बाह्यं किंचन वेद नान्तरमेवायं पुरुषः
प्राक्षेनात्मना सं परिष्वक्तो न बाह्यं किचन वेद नान्तरम।"
अर्थात् जिस प्रकार प्रियतमा के गाढ़ालिंगन में आवेष्टित हो जाने पर पुरुष को बाहर-भीतर का कुछ भी
ज्ञान नहीं रह जाता, वह आत्म-विभोर हो जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा को परमात्मा में सन्निविष्ट हो जाने पर
बाहर-भीतर का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता । ऐसी अवस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान इस त्रिपुटी का लोप हो जाता
है और आत्मा परमात्मा एकाकार हो जाते हैं।
दादूदयाल इसी भाव को यों व्यक्त करते हैं―
पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग
जे जे जैसी ताहि सों खेले तिस ही रंग।
कबीर कहते हैं―
दुलहिन गावहु मंगलचार।
हम घर आये हो राजाराम भरतार ।।
★★★