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 कृष्ण-आख्यानः पुरावृत्त



                                        कृष्ण-आख्यानः पुरावृत्त


भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विलक्षण है। महाभारत में तो
कृष्ण का आख्यान पूर्ण रूप से उपलब्ध होता है। महाभारत में कृष्ण पांडवों के सखा और एक सफल
राजनीतिज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 'महाभारत' में ही कृष्ण के दैवी अवतार का भी प्रकरण उपलव्ध होता
। सभा-पर्व में भीष्म श्रीकृष्ण को अव्यक्त प्रकृति और सनातन कर्ता कहते हैं-"एवप्रकृर्तिव्यक्त कर्ता
मार्च व परश्च सर्वभूतेभ्यः तस्मात् पूज्यतमोऽच्युतः।" महाभारत में ही आगे चलकर कृष्ण को ब्रह्म भी
कहा गया है।
                               "एतत परमकं ब्रह्म एतत परमर्कक वशः
                                        एतदक्षरम् एतत वैश्वाश्वतमहः।"

भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की की गई इस प्रशंसा में कृष्ण द्वारा गोकुल में की गई लीलाओं का आभास
अथवा निर्देश नहीं है, स्पष्ट है, महाभारत में परब्रह्म कृष्ण की भावना तो है; गोपाल कृष्ण की
भावना नहीं।
 महाभारत में कृष्ण के लिये गोविंद नाम भी आता है, परंतु इस शब्द को 'गो' से संबंध रखने वाले
गोपाल का पयर्यावाची अथवा समानार्थक नहीं माना जा सकता। शांति-पर्व में वासुदेव कृष्ण ने अपना
गोविंद नाम बतलाते हुए पृथ्वी के उद्धार की बात कही है। यहाँ गोपाल की बात नहीं है।
महाभारत में विष्णु के महत्त्व का पूर्ण वर्णन है; क्योंकि विष्णु की भावना में अवतारवाद है। इसमें
कृष्ण विष्णु के ही अवतार माने गये हैं, परंतु महाभारत के ही वीर राजनीतिज्ञ कृष्ण के व्यक्तित्व से इन
संदर्भो में कोई समानता नहीं दिखाई पड़ती।
                  महाभारत के पश्चात् भगवद्गीता में श्रीकृष्ण का पूर्ण 'परब्रह्म' रूप ही है।

                                     "मतः परतरम् नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय ।
                                       मयि सर्वमिदम् पोक्तम् सूत्रे मणि गणा एव ॥"

महाभारत के विष्णु-अवतार श्रीकृष्ण भगवद्गीता में ब्रह्म के पद पर प्रतिष्ठित किये गये हैं। विष्णु या कृष्ण
की ब्रह्म-पद पर स्थापना इस बात का द्योतक है कि कृष्ण ब्रह्म के साकार रूप माने गये हैं।
        कृष्ण का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। कृष्ण यहाँ 'आगिरस' हैं। इन संदर्भो
में कृष्ण एक स्तोताऋषि हैं। वे तथा उनके पुत्र क्रमश: अपने पौत्र और पुत्र विश्वक-विष्णापु को पुनः
जीवन और आरोग्य प्रदान करने के लिये अश्विनी कुमार का आह्वान करते हैं। अश्विनी कुमार सोमपान

करने हेतु आते हैं। ऋग्वेद में ही एक किसी कृष्णासुर का भी उल्लेख आता है, जिसे इन्द्र ने
पराभूत
किया था; परंतु महाभारत के कृष्ण से इन प्राचीन संदर्भो की कोई समता नहीं दीखती। छांदोग्य
उपनिषद् में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख घोर आगिरस के शिष्य एवं वैदिक ऋषि के रूप में होता
है। यहाँ कृष्ण को अपने गुरु से यज्ञ की सरल रीति प्राप्त हुई थी और जिसकी दक्षिणा थी तप, दान,
आर्जव, अहिंसा और सत्य ।
          महाभारत में ही शांति पर्व में वासुदेव कृष्ण की पूजाविधि बताते हुए जिस वैष्णव यज्ञ का प्रतिपाद
किया गया है उससे उपनिषद् के इस संदर्भ का सरलता से सामंजस्य हो जाता है। महाभारत में ही
शिशुपाल के कुछ शब्दों के अलावा कृष्ण के गोप जीवन का यहाँ कोई उल्लेख नहीं मिलता। परवर्ती
पुराणों-हरिवंश, ब्रह्म, विष्णु, भागवत और ब्रह्मवैवर्त में उनके बाल-जीवन के आख्यान मिलते हैं। इन
अनेक पुराणों में कृष्ण की कथा को अधिकाधिक महत्त्व मिला है परंतु इनमें भागवत की कथा ही सबसे
अधिक विस्तृत ओर सांगोपांग तथा व्यवस्थित कही जा सकती है। भागवत पुराण में कृष्ण की एक विशेष
आराधिका (गोप-बाला) का भी उल्लेख मिलता है। यही ब्रह्मवैवर्त पुराण की राधा है। संभवतः महाभारत
में चित्रित कृष्ण का व्यक्तित्व ऐतिहासिक कृष्ण का उल्लेख 'घट जातक' में मिलता है। 'महा उमग्ग'
जातक में भी 'कण्ह वासुदेव' की क्रमशः एक पूरी कथा तथा संक्षिप्त उल्लेख मिलता है; जिसका थोड़ा
बहुत साम्य भागवत में वर्णित प्रसिद्ध कृष्ण-कथा से दिखाया जा सकता है। यहाँ कृष्ण एक 'कामासक्त'
के रूप में चित्रित हैं।
  'नारायणीय' के अनुसार विष्णु संसार में चार रूपों में अवतरित होते हैं और उन्हीं के अवतार की
सृष्टि होती है। 'नारायणीय' में अवतार-भावना का यथेष्ट विस्तार है। इसमें अन्य अवतारों के साथ
कंस-वध के निमित्त वासुदेव के अवतार का वर्णन तो मिलता है; पर गोपाल कृष्ण के व्यक्तित्व का कोई
संकेत नहीं मिलता। गोपाल कृष्ण के व्यक्तित्व का उद्भव हरिवंश पुराण, वायु पुराण और भागवत पुराण
में हुआ है। 'नारायणीय' के छह अवतारों में राम और वासुदेव कृष्ण का भी उल्लेख है। भागवत पुराणों
के दस अवतारों में भी हरिवंश के छह अवतारों का उल्लेख है। ऐसा लगता है गोपालकृष्ण की कथा
पीछे की है। यह मूल कथा का विकृत रूप भी हो सकता है। पाश्चात्य विचारक ग्रियर्सन, केनेडी ओर
बेवर आदि ने अनुमान किया है कि गोपालकृष्ण का बालचरित 'क्राइस्ट' के बाल-चरित का अनुकरण है।
परंतु यह मत पूर्णत: निरर्थक सिद्ध हो चुका है।
संभावना यह है कि गोपालकृष्ण मूलतः शूरसेन प्रदेश के शाश्वत वृष्णिवंशी क्षत्रियों के कुलदेव थे।
उनके बचपन की कहानियाँ मौखिक रूप में लोकप्रचलित थीं। परवर्ती युग में इसी को वैदिक और
महाभारत के कृष्ण से संभवतः मिला दिया गया हो। इसकी प्राचीनता इस बात से प्रमाणित है कि सन्
1526-27 के आर्केलाजिक रिपोर्ट में प्रकाशित पूर्व बंगाल के पहाड़पुर में मिली धेनुकासुर बध, यमलार्जु

उद्धार मुष्टिकचाणूर के साथ मल्लयुद्ध और राधा के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़ी कृष्ण की मूर्तियाँ छठी
शताब्दी के पूर्व की मानी जाती हैं।
     राजस्थान में मंडोर नामक स्थान पर द्वारपाटों पर गोवर्धन धारण, नवनीत यौर्य, संकट भंजन इत्यादि
के चौथी शती के उत्कीर्णित चित्र मिलते हैं। मथुरा में भी इस समय की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं।
मेगास्थनीज के वर्णन से भी यह प्रमाणित होता है कि चौथी शती के पूर्व मथुरा के आसपास कृष्ण की
पूजा प्रचलित थी। डॉ० भंडारकर ने भी गोपालकृष्ण को वासुदेव कृष्ण से भिन्न माना है। डॉ० ए० डी०
पुशालकर ने दोनों को एक ही माना है। वे मानते हैं कि वासुदेव कृष्ण ने ही गोकुल में गोपियों के साथ
नृत्य-गीतादि में भाग लिया था, जो उनकी कलाप्रियता का सूचक है। आज उसे ही शृंगारी रूप दे दिया
गया है।
       नृसिंह पुराण के एक श्लोक में इस प्रकार कहा गया है कि पृथ्वी को भार मुक्त करने के लिये
विष्णु ने अपनी दो शक्तियों-श्वेत और श्यामल को पृथ्वी पर भेजा । श्वेत शक्ति राम के नाम से प्रसिद्ध
हुई और श्यामल शक्ति कृष्ण के नाम से―
                                     "प्रेषयामास देशीक्त सित कृष्णे स्वके नृप ।
                                     तयोः सिता च रोहिण्यां वासुदेव वाद्वभूव ह।
                                       तद्वत् कृष्णा च देवभ्याम् वासुदेवद्वभूव ह।
                                     रोहिणेयोऽथ पुण्यात्मा रामनामाश्रितो महान ।
                                                              देवकीनंदनः कृष्ण .............।

हरिवंश पुराण में गोपालकृष्ण की भावना का विकास इस प्रकार होता है कि उस पुराण में एक
स्थल पर कृष्ण अपने पिता नंद से गोवर्द्धन-पूजा की प्रार्थना करते समय अपने को पशुपालक कहते हैं, और
'गोधन' को ही अपना वैभव मानते हैं। हरिवंश पुराण के ही एक श्लोक से कृष्ण का निवास स्थान ब्रज
और वृंदावन ज्ञात होता है। द्वितीय और तृतीय शताब्दी में ब्रज-वृन्दावन क्षेत्र में आभीर नामक एक जाति
रहती थी। अनुमान किया जाता है कि गोपाल कृष्ण इस जाति के देवता रहे होंगे। ईसा की द्वितीय और
तृतीय शती में आभीरों ने महाराष्ट्र के उत्तर में भी अपने राज्य की स्थापना की थी। इस प्रकार इस क्षेत्र
में भी यह जाति अपने साथ गोपाल कृष्ण को ईश्वर के रूप में ले आई। भंडारकर का भी अनुमान है
कि आभीर जाति का कृष्ण शब्द पश्चिम के 'क्राइस्ट' शब्द से ही संभवतः उद्भूत हुआ हो। इसी कृष्ण
को आभीर जाति ने वेद, उपनिषद् और महाभारत के कृष्ण से संबद्ध कर लिया। इस प्रकार महाभारत तक
ब्रह्म के अवतार वासुदेव कृष्ण का रूप आभीरों के गोपालकृष्ण के रूप में परिवर्तित हो गया और गोपाल
कृष्ण की बाल-लीलायें पुरातन कृष्ण के चरित्र में सन्निहित कर दी गयी।
नारद पंचरात्र की ज्ञानामृत सार-सहिता में कृष्ण की बाल-लीलाओं का उल्लेख मिलता है। इस
सहिता का रचना-काल लगभग वही है, जिस समय आभीर अत्यंत प्रभावशाली थे और उसी प्रभाव के
कारण वासुदेव कृष्ण की पृथक् सत्ता गोपाल कृष्ण के बाल-चरित में विलीन हो गयी। इस प्रकार हम
देखते हैं कि ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कृष्ण की भावना में देवत्व की भावना आ गई थी। पाणिनि
के व्याकरण में वासुदेव और अर्जुन देव-युग्म के रूप में आए हैं। प्रथम कृष्ण को पूर्ण अवतार के रूप
में हम महाभारत में ही देखते हैं। वैसे तो अवतार की भावना इस देश में बहुत प्राचीन काल से चली
आ रही थी, जो ही सगुण उपासना प्रणाली का आधार थी; लेकिन महाभारत काल में प्रणीत ‘भागवत।
में कृष्ण की लीलाओं का विशद उल्लेख हुआ है, और सब संप्रदायों के कृष्ण-भक्तों ने भागवत के माधुर्य
रूप कृष्ण की लीलाओं को ही अपनी उपासना और भक्ति का आधार बनाया
     उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारत में कृष्ण-आख्यान प्राचीन काल से ही चला आ रहा
है। कृष्ण मूलतः तीन रूपों में मिलते हैं-(1) वैदिक ऋषि और धर्मोपदेशक के रूप में (ii) नीति-कुशल
क्षत्रिय नरेश के रूप में, और (ii) बाल एवं किशोर की स्थिति में लीला दिखाने वाले अवतारी पुरुष के
रूप में। कृष्ण का प्रथम रूप गीता में, द्वितीय रूप महाभारत में और तृतीय रूप पुराणों में उपलब्ध होते
हैं। कृष्ण के ये तीनों रूप भागवत धर्म की तीन विभिन्न अवस्थाओं के सूचक हैं। प्रारंभ में भागवत धर्म
सरल, पवित्र और भावपूर्ण था, जिसकी अभिव्यक्ति गीता और छांदोग्य उपनिषद में है। महाभारत में
भागवत धर्म की कर्मशीलता चित्रित है और संभवत: कृष्ण का यही रूप ऐतिहासिक भी है। पुराणों में
कृष्ण परिवर्तित रूप में हैं। गोकुल के कृष्ण के चरित्र में ऐसा कोई दोष नहीं मिलता जिससे उनकी सत्ता
महाभारतीय कृष्ण या गीताकार कृष्ण से भिन्न मानी जाय । भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ डॉ० डी० एस०
त्रिवेदी (इंडियन क्रोनोलॉजी) के अनुसार महाभारत की सफल क्रांति ईसवी सन् 3137 वर्ष पूर्व में हुई थी।
अपने समाज के लोगों से वासुदेव कृष्ण उसी समय से पूजे जाने लगे थे। युधिष्ठिर और अर्जुन की श्रद्धा
तो उनपर है ही, स्वयं वेदव्यास भी कृष्ण को अपने से अधिक धर्मधुरंधर मानते हैं। इस समय वे अवतार
भले ही घोषित न हुए हों पर धर्म और राजनीति के संचालक तो वे हैं ही। अवतारवाद की प्रतिष्ठा होने
पुनः इनकी
पर वे अवतारों में गिने जाने लगे होंगे। चौथी शती के आसपास मथुरा प्रदेश में इनकी पूजा का उल्लेख
मेगास्थनीज के यात्रा-विवरण में मिलता है। बौद्धधर्म के महत्त्वपूर्ण हो जाने पर उत्तर भारत में
पूजा का उल्लेख तो नहीं मिलता पर दक्षिण भारत में इनकी पूजा और भक्ति का प्रचार सातवीं-आठवीं
शती तक जोरों से हो जाता है। आलवारों में यही भक्ति पनपती है। वास्तव में वैष्णव धर्म के सांप्रदायिक
रूप का संघटन दक्षिण में ही हुआ था। भागवत के कृष्ण का रूप मधुर होने के कारण भक्ति के क्षेत्र
में गोप-गोपियों के ढंग का, माधुर्य-भाव-प्रधान उपासना का द्वार उन्मीलित हुआ। इसके प्रचार में बाद में
दक्षिण की देवदासी प्रथा विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुई।
    कृष्ण के जो तीन रूप दिखाई पड़ते हैं, वे तीनों रूप वस्तुतः मनुष्य के ज्ञान, राग और कर्म को
तीन प्रधान मानसिक वृत्तियों के प्रतिनिधि के रूप में जाने जाने लगे। कृष्ण के तीनों रूप पर्याप्त प्राचीन
जान पड़ते हैं और बाह्यतः असंगत-से लगते हुए भी उनमें एकसूत्रता देखी जा सकती है। उदाहरणार्थ
के व्यक्तित्व की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता-निस्संगता या तटस्थता की वृत्ति समान रूप से उनके
सभी रूपों में मिलती है। ये तीनों रूप कृष्ण के उस दैवत रूप के ही अधीन विकसित हुए जो अत्यंत
प्राचीन काल से इष्टदेवता वासुदेव कृष्ण के रूप में लोकप्रिय होता आया था। इसी दैवत रूप की
परिणति अंततोगत्वा साक्षात् परब्रह्म में हुई। यह भी है कि इष्टदेव कृष्ण के व्यक्तित्व की प्रमुख
विशेषता इनका सौंदर्य और माधुर्य ही थी और इसी रूप में वे वृष्णिवैशीय सात्वत जाति के कुलदेव माने
जाते थे। इस प्रकार वेद से लेकर पुराणों तक आते-आते मानव और ऋषि कृष्ण देवता के पद पर
प्रतिष्ठित हो जाते हैं।

                                                ★★★
और नया पुराने