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 राम-काव्य की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)



                        राम-काव्य की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)


हिंदी साहित्य के प्रादुर्भाव के पूर्व ही राम-कथा शताब्दियों से भारतीय साहित्य में इतनी व्याप्त होती
रही थी कि समस्त भारतीय संस्कृति 'राममय' हो चली थी। तभी हिंदी साहित्य में राम-कथा की इस
लोकप्रियता के कारण संत कवियों ने भी 'रामनाम' का सहारा लेकर अपनी निर्गुण-साधना का प्रचार
किया। संत-काव्य पर राम-काव्य का यह प्रभाव 'नाम' के प्रयोग तक ही सीमित नहीं रहा। रीतिकाल में
तो दरिया साहब ने 'ज्ञानरत्न' में तथा उसके बाद तुलसी साहब ने 'घट रामायण' में रामायणीय कथा को
निर्गुणवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
 हिंदी साहित्य के आदिकाल में रामानंद ने उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा में राम-भक्ति का
प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप हिंदी राम-काव्य आधुनिक काल को छोड़कर प्रायः भक्ति-भावना से
ही ओत-प्रोत है। इस साहित्य की मुख्यत: चार प्रमुख दिशाएँ प्रतीत होती हैं : तुलसीदास का एकाधिपत्य,
लोक-संग्रह, दास्य भक्ति का प्राधान्य, कृष्ण-काव्य का प्रभाव और विविध रचना-शैलियों, छंदों और
साहित्यिक भाषाओं का प्रयोग ।
   हिंदी के समस्त राम भक्ति-काव्य की प्रमुख विशेषता यह है कि कवियों में 'रामचरित मानस' के
रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की रचनात्मक प्रवृत्तियों का ही प्राधान्य है। तुलसी ने मर्यादापुरुषोत्तम राम की
गुणगाथा गाते हुए रामानंद द्वारा प्रचारित लोक-संग्रही सगुण दास्य-भक्ति का जो रूप प्रतिपादित किया है,
उसी को आमजन ने भी और लगभग सारे कवियों ने भी अपना लिया है। यह दास्यभक्ति इतनी लोक प्रिय
हुई कि राम की मधुरोपासना प्राय: जूठन मात्र रह गयी, किंतु कृष्ण-काव्य के प्रभाव के कारण राम की
रास-क्रीड़ा तक का वर्णन 'अग्रदास' के 'अष्टयाम' नामक काव्य में मिलता है। हिंदी राम-काव्य की एक
प्रमुख विशेषता यह है कि बहुत-सी रचनाओं में राम और सीता साधारण नायक-नायिका बनकर शृंगारपूर्ण
चेष्टाएँ करते दिखाई देते हैं।
   हिंदी राम-काव्य की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कृष्ण-काव्य की अपेक्षा रचना-शैलियों,
छंदों और साहित्यिक भाषाओं की अधिक विविधता पाई जाती है। यहाँ प्रबंध-काव्य का प्राधान्य रहते हुए
भी मुक्तक काव्य नगण्य नहीं हैं। इन राम-भक्त कवियों ने सभी प्रचलित छंदों में मध्यकाल की प्रमुख
भाषाओं में राम-चरित्र का वर्णन किया है। संपूर्ण राम-काव्य में राम को लोक-रक्षक के रूप में देखने
की ही प्रवृत्ति कवियों में है। इन सभी राम-भक्त कवियों ने ब्रह्म को सगुण तथा राम से अभिन्न माना
है। मायाश्रित राम ही निर्गुण भी हैं और सगुण भी।
हिंदी राम-काव्य की प्रवृत्तिगत विशेषताओं की चर्चा के समय हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि
आधुनिक काल को छोड़कर प्रायः समस्त राम-काव्य भक्ति-भावना से ओत-प्रोत है, किंतु जैसा कि उपर
निर्दिष्ट किया जा चुका है, सामान्य रूप से राम का पुरोषत्तम रूप, लोक-संग्रह की भावना, दास्यभक्ति,
संपूर्ण राम-काव्य पर तुलसी का प्राधान्य, समन्वयत्मकता, कृष्ण-काव्य का प्रभाव, रचनाशैली का वैविध्य,
छंदों का वैविध्य और साहित्यिक भाषा का उपयोग।
      सभी राम-भक्त कवियों के इष्टदेव विष्णु के अवतार होकर भी पूर्ण ब्रह्म और 'विधि हरि सम्भु
नचावन हारे' हैं। धर्मोद्धार और पापशमन हेतु ये प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं। ये शील, शक्ति और
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हैं। ये आदर्श के प्रति व्यापक और मर्यादापुरुषोत्तम हैं।
 लोक-संग्रह की भावना का जितना उदात्त रूप राम-काव्य में चित्रित हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं।
मध्यकालीन निवृत्तिमूलक हिंदू-जीवन को प्रवृत्तिमूलक इसी ने बनाया । वास्तव में पारिवारिक कवि के रूप
में लोक-कल्याण की भावना से काव्य लिखने की जो परंपरा तुलसी ने चलायी, आगे के लगभग सभी
कवियों ने उसे अपनाया। अपनी लोक-संग्रही भावना से समाज के इस चित्र को तुलसी कैसे व्यक्त करते
हैं, देखें :―
        "खेती न किसान को, भिखारी को भीख नहिं, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
            जीविकाविहीन लोग सीधमान सोच बस, कहैं एक एकन सों कहाँ जाइ का करी?"
इतना ही नहीं―
              "किसबी किसान कुल बनिक भिखारी भाट, चाकर चपल नट चोर चार चेटकी।
               पेट की पढ़त गुन गढ़त चढ़त गिरि अटत गहन बन अहन अखेटकी ।।
               ऊँचे-नीचे करम-धरम अधरम करि, पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।
               तुलसी बुझाइ एक राम घनस्याम ही ते आगि बडवागि तें बड़ी है आग पेट की ।।
यह वर्तमान समाज का भी यथार्थ चित्रण है। यह है लोक-चेतना । वास्तव में राम काव्य ने लोक-भावना
और देश की ऐहिकता के उत्थान में बड़ा योगदान दिया।
     दास्य-भक्ति राम-भक्ति-काव्य की खास विशेषता है। तुलसी के 'सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न
तरिय उरगारि' के उपजीव्य राम शीले, शक्ति और सौंदर्य के आकर हैं। अन्य देवताओं के प्रति भी इस
काव्य में समान भावना है। समाज के प्रत्येक पूज्य और श्रद्धेय तत्व के प्रति पूज्य भावना ही इस भक्ति
का आदर्श है।
   समस्त रामकाव्य को देखें तो लगता है इस काव्यधारा में तुलसी का एकाधिकार-सा है। वस्तुतः
रामभक्ति-काव्य में समन्वय की भी अपूर्व भावना है। तुलसी अपनी समन्वयात्मक दृष्टि के कारण ही
लोकनायक के रूप में मान्य हुए। ज्ञान का भक्ति से निर्गुण का सगुण से, शिव का राम से प्रबंध का
मुक्तक से, ब्राह्मण का शुद्र से, अवधी का ब्रजी से, लोकमत का साधुमत से समन्वय कर संपूर्ण राम-काव्य
ने अपनी उदारता और विस्तृत परिधि का परिचय दिया। भारतीयों के मन में राम के अमिट रूप का यह
भी कारण है।
        राम-भक्ति-काव्य की अन्यतम विशेषता है कि इसमें रचना-शैलियों का वैविध्य पाया जाता
है। कृष्ण-काव्य में इतनी विविध काव्य-शैलियाँ प्रयुक्त नहीं हुई हैं। राम-काव्य प्रायः प्रबंध-काव्य
हैं परंतु उनमें मुक्तकों का भी कम उपयोग नहीं हुआ है। काव्य-शैलियों की ही तरह छंदों का
वैविध्य भी यहाँ उपलब्ध है। दोहा और चौपाई की प्रधानता होते हुए भी कवित्त, सवैया, सोहर,
बरवै, कुंडलिया, सोरठा, घनाक्षरी, छप्पय, त्रिभंगी, और विनय के पद इत्यादि अनेक तरह के छंद
प्रयुक्त हुए हैं।
      भाषा के विचार से भी राम-काव्य में अनेक साहित्यिक भाषाओं का उपयोग किया गया है।
रामचरित मानस में अवधी का विशुद्ध साहित्यिक रूप प्रयुक्त है, ठेठ रूप नहीं। इन कवियों ने अवधी का
ब्रजी से मेलकर अद्भुत भाषाधिकार का परिचय दिया है। तुलसी की गीतावली को छोड़ अन्य रचनाओं
में अवधी का ही प्रयोग है। केशव की 'रामचंद्रिका' की भाषा ब्रजी है। तुलसी तथा अन्य अनेक कवियों
में भोजपुरी तक के शब्दों का प्रयोग मिलता है। आधुनिक काल में रचित राम-काव्य की भाषा शुद्ध खड़ी
बोली हिंदी है। उदाहरणस्वरूप मैथिली शरण गुप्त का 'साकेत' और निराला की 'राम की शक्ति-पूजा'
को लिया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि रचना-शैली, छंद-विधान तथा भाषा-प्रयोग के संदर्भ में संपूर्ण
राम-काव्य के कवियों में वैविध्य की प्रवृत्ति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

        अस्तु स्थूल रूप से सुविधा के लिये प्रवृत्तियों को यों खतिया सकते हैं :

(1) मर्यादा पुरुषोत्तम, लोकरक्षक और लोक-मंगल-विधायक के रूप में श्रीराम की प्रतिष्ठापना
करने की प्रवृत्ति,

(2) राम को शक्ति, शील और सौंदर्य के समन्वित और सजीव आकार में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति,

(3) राम को आराध्य मानते हुए भी वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मार्त-सभी मतों को सम्मन देते हुए
समन्वय के मार्ग को अपनाने की प्रवृत्ति;

(4) भक्ति के साथ इन भक्त कवियों ने कर्म एवं ज्ञान की प्रतिष्ठापना भी की। इनके राम तो
सतत कर्म के ही प्रतीक हैं; अत: कर्मवाद का समर्थन करने की भी इनमें प्रवृत्ति है;

(5) काव्य-रूप की दृष्टि से इनकी रुचि लगभग प्रबंध-काव्य की ओर ही है;

(6) भावपक्ष में इन कवियों ने शृंगार एवं भक्ति रसों के साथ करुण, रौद, वीर आदि अन्य रसों
का भी तन्मयकारी चित्रण किया है;

(7) विविध भाषा-प्रकारों के साथ इन कवियों ने सभी प्रचलित छंद-शैलियों को अपनाने की
प्रवृत्ति दिखाई। छंदों के वैविध्य के साथ इनमें अलंकार-वैविध्य और सौष्ठव भी सराहनीय
रूप में परिलक्षित होता है।

(8) इस धारा के कवियों ने एक विशिष्ट आदर्श और उद्देश्य को लेकर काव्य रचना की है-असदु
पर सद् की विजय का घोष इनका मुख्य उद्देश्य है।

                                                   ★★★
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