कृष्ण भक्ति-धारा : काव्य-परंपरा तथा प्रमुख कवि
कृष्ण भक्ति-धारा : काव्य-परंपरा तथा प्रमुख कवि
इतिहास से यह सिद्ध है कि ईसा से लगभग चार सौ वर्षों पूर्व कृष्ण की भावना में देवत्व की
भावना आरोपित की जा चुकी थी। पाणिनि के व्याकरण 'अष्टाध्यायी' में वासुदेव और अर्जुन देव-युग्म
के रूप में जाने गये हैं। अवतारी कृष्ण के रूप में पहली बार हम उन्हें महाभारत में देखते हैं। भागवत
में कृष्ण-लीला का विशदता पूर्वक उल्लेख हुआ है। फिर तो सारे संप्रदायों के कृष्ण-भक्तों ने भागवत के
ही माधुर्य-रूप कृष्ण की लीलाओं को अपनी उपासना और भक्ति का आधार बना लिया था। इस तरह
यह प्रमाणित है कि धुर वेद से लेकर पुराणों तक आते-आते मानव और ऋषि कृष्ण देवता के पद पर
प्रतिष्ठित हो चुके थे। भागवत में तो कृष्ण के माधुर्य रूप संबंधी नाट्य-लीला के वर्णन भी प्राप्त
होते हैं।
मौखिक रूप से ललित मधुर गोपालकृष्ण की कथाएँ जन सामान्य में प्रचलित चल रही थीं। ये
कथाएँ 'गाथासप्तशती' ध्वन्यालोक, बुद्धचरित जैसे ग्रंथों एवं तत्कालीन मूर्तिकला एवं शिलालेखों से
आभासित हो जाती हैं। पद्म पुराण और ब्रह्म वैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण की प्रेम-रोमांस-गर्भित कथा
विस्तार से दी गयी है। लोक-साहित्य, गीत और कथाओं में कृष्ण के असंख्य आख्यान चलते रहे होंगे।
यह मध्यकालीन देशभाषा काव्य से प्रमाणित होती है।
भक्ति के क्षेत्र में 'भागवत पुराण' के आधार पर प्रथम संप्रदाय 'माध्व संप्रदाय' है जिसमें द्वैतवाद
के सिद्धांत पर कृष्णोपासना के ऊपर विशेष जोर दिया गया है। इस संप्रदाय के पश्चात् विष्णु स्वामी, और
निम्बार्क संप्रदायों की स्थापना हुई। इसी निम्बार्क संप्रदाय में कहाकवि जयदेव दीक्षित थे जिन्होंने कृष्ण की
बिहार-लीलाओं पर प्रांजल संस्कृत में सुगम शैली की ऐसी भावपूर्ण रचना की कि अन्य संप्रदायों के
भक्त-कवि भी उनके इस काव्य-माधुर्य के रस-रंग से अछूते न रह पाये।
दक्षिण के आलवार भक्तों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी में कृष्ण-भक्ति का बहुत प्रबलता से
प्रचार-प्रसार किया। हमें यह ज्ञात है कि कृष्ण-भक्ति को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करने में " 'श्रीमद्भागवत
पुराण' को बड़ा श्रेय जाता है। संस्कृत के प्राकृत के साहित्य में भी कृष्ण भक्ति-काव्य की परंपरा मिलती
हैं। मथुरा के आस-पास कृष्ण-भक्ति का प्रचार चौथी शती में ही हो चुका था।
संस्कृत में राधा-कृष्ण संबंधी प्रथम काव्य-रचना जयदेव कृत (बारहवीं शती) 'गीतगोविंदम्' है जो
भक्ति और शृंगार का अनुपम माधुर्य मंडित गीतिकाव्य है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि जयदेव को
उसकी रचना की प्रेरणा राधा-कृष्ण संबंधी लोकगीतों तथा लोक प्रचलित आख्यानों से ही मिली होगी।
जयदेव के 'गीत गोविंद' का मूल्य न केवल काव्य की दृष्टि से, प्रत्युत उसका महत्त्व इस दृष्टि से भी
अल्प नहीं है कि पुराणों आदि में भी जिस राधा की चर्चा अथवा उल्लेख नहीं होता, या नहीं के बराबर
होता, उसे उसने कृष्ण की प्रेयसी के रूप में चित्रित कर आगे आने वाले कवियों विद्यापति और सूरदास
के काव्य के प्रधान अंग के रूप में स्वीकृत करबा दिया। इतना ही नहीं, फिर तो राधा और कृष्ण के
युग्म को सदा के लगभग अमर बना दिया।
यों तो कृष्ण-काव्य का प्रारंभ हिन्दी में विद्यापति से माना गया है, लेकिन विद्यापति पर 'गीतगोविंद'
के ललित पदों के रचयिता महाकवि जयदेव का विशेष प्रभाव होने के कारण वास्तव में कृष्ण-काव्य का
सूत्रपात करने वाले प्रथम कवि के रूप में जयदेव का ही नाम लिया जाना चाहिये। जयदेव श्री कृष्ण-लीला
और विलास-लीलाओं के आचार्य से हैं। 'गीतगोविंद' में जयदेव ने राधा-कृष्ण का मिलन, कृष्ण की मधुर
लीलाएँ और प्रेम की मादक अनुभूति अत्यंत सरस और मधुर 'शब्दावली में प्रस्तुत की हैं। 'गीत गोविंद'
में कामदेव के वाणों की मीठी पीड़ा है। लौकिक शृंगार से यदि आध्यात्मिकता का संकेत माना जाय तो
'गीतगोविंद' में आध्यात्मिकता का यों कोई संकेत नहीं मिलता। यहाँ कृष्ण 'हरि' रूप में हैं, बस । उनकी
लीला और चेष्टाएँ कामसूत्र के संकेतों के आधार पर परिरंभन विलास और कीड़ा की हैं―
बिहरति हरिरिह सरस बसंते।
नृत्यति युवति जनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरते।
उन्मद मदन मनोरथ पथिक वधू जन जनित विलापे।
अलि कुल संकुल कुसुम समूह निराकुल बकुल कलापे।" आदि
जयदेव के कृष्ण का मूल रूप इसी पक्ति से स्पष्ट होता है―
"गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल-कर-युग-शाली।"
जयदेव से कृष्ण-काव्य का प्रारंभ नहीं मानने वालों को इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हिंदी के
कवियों की राधा-कृष्ण संबंधी रचनाओं के प्रणयन के लिये उनके 'गीत गोविंद' ने अत्यधिक प्रोत्साहन
अवश्य प्रदान किया। इस क्षेत्र में वे हिंदी के कवियों के लिये आधार-स्तंभ सरीखे हैं।
लोक-परंपरा की देशभाषा में सबसे पहली कृष्णाद्धृत साहित्यिक अभिव्यक्ति चौदहवीं-पंद्रहवीं शती
में विद्यापति के मैथिल पदो में हुई है। जाहिर है ‘पदावली' इस दृष्टि से हिंदी की पहली कृष्ण काव्य
परक रचना मानी जानी चाहिये।
जयदेव के 'गीत गोविंद' का प्रभाव विद्यापति के काव्य पर कितना पड़ा इसका अनुमान तो विद्यापति
'अभिनव जयदेव' विशेषण से ही लगाया जा सकता है। इस मैथिल कवि ने परंपरागत कृष्ण के
ल-कला-निपुण स्वरूप में कोई नवीन उद्भावना नहीं की, प्रत्युत परंपरा का ही पालन किया। जयदेव
कविहरति हरिरिह सरस बसते' पक्ति की तुलना विद्यापति की इन पंक्तियों से करके देखें―
बिहरहिं नवल किशोर ।
कालिंदी तट कुंज नव शोभन, नव नव प्रेम-विभोर ।
तथा―"नव युवती जन चित उनमाइल नव रस कानन छाप ॥"
राधा-कृष्ण के जीवन को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी विद्यापति ने नहीं रहने दिया है। विद्यापति के
पदों में भक्ति ढूँढना लगभग व्यर्थ है। संकेत रूप से भी विद्यापति ने कहीं भी कृष्ण का स्वरूप नारायण,
विष्णु या परब्रह्म का नहीं रहने दिया है। इनके कृष्ण-काव्य का प्रधान स्वर ही शृंगार है। यहाँ कृष्ण
एक कामी नायक के रूप में पाठक के सामने आते हैं। सख्य भाव से जो उपासना की गयी है उसमें कृष्ण
तो यौवन-मदोन्मत्त नायक की भाँति हैं और राधा यौवन में मतवाली एक मुग्धा नायिका । उदाहरण―
सुतलि छलौं हम घरवा रे
गरवा मोती-हार।
राति जखन भिनसरवा रे
पहुँ आओल हमार
कर-पंकज कर कैंपइत रे
हरवा उर टार
कर-पंकज उर थपइत रे
मुख-चंद निहार । इत्यादि।
जीवन के उत्तरार्द्ध में विद्यापति ने अपने हृदय में शिव और शक्ति की तरह राधामाधव के प्रति अपनी
भक्ति-भावना प्रदर्शित की है। चैतन्य सरीखे भक्त कवियों को भी विद्यापति ने अपनी विदग्ध माधुरी और
गूढ़-गंभीर प्रेम-प्रवणता से रसमग्न कर दिया था। सच पूछये तो लगभग इसी तरह के वातावरण में हिंदी
के कृष्ण-काव्य की अधिकांशतः कृष्ण-भक्ति-काव्यपरक रचना हुई है। यह देखकर विस्मय होता है कि
पूर्व में कृष्णलीला का सर्वप्रथम अश्वघोषकृत बुद्ध-चरित में वर्णन है, परंतु विद्यापति उससे अनभिज्ञ से हैं।
हाल की 'गाहा सतसई' में भी कृष्ण-लीला परक दोहे उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं आलवार-संतों के
'प्रबन्धम' नामक संग्रह में भी 'कृष्ण-लीला' के वर्णन पूरी तरह हैं। तत्पश्चात् 'वेणि संहार', ध्वन्यालोक
'सदुक्तिकरणामृत; कवींद्र वचन समुच्चय', तथा कंदर्प मंजरी में भी यह चर्चित है। फिर तो इसी क्रम में
अनेक पुस्तकें कृष्ण लीला के सम्बन्ध में लिखी गयीं। इनमें कृष्ण करणामृत', 'श्री कृष्ण लीलामृत',
संगीत माधव, 'गीत गोपाल', हरिलीला, 'अभिनव गीत गोविंद', 'यादवाभ्युदय', "ब्रजबिहारी', हरिचरित्र
काव्य', 'हरिविलास काव्य' और 'गोपाल चरित' जैसी पुस्तकें संस्कृत में कृष्णलीला से संबंधित हैं। डॉ.
सुकुमार सेन ने ब्रजवुली साहित्य के इतिहास में ऐसी अनेक पुस्तकों का उल्लेख किया है।
इस प्रकार तब भी, विद्यापति के काव्य में राधा-कृष्ण के नाम बार-बार अपने पर भी वे भक्ति के
पद नहीं, शृंगार के पद है। आचार्य शुक्ल विद्यापति के पदों में कृष्ण भक्ति नहीं, ....शृंगार देखते हैं।
शंकर के मायावाद ओर विवर्तवाद से पीछा छुड़ाने के लिये रामानुज से लेकर वल्लभाचार्य तक
जितने भक्त-दार्शनिक अथवा आचार्य हुए, उन्होंने सगुणोपासना के आधार-स्वरूप अवतारों के अक्षरब्रह्म के
दार्शनिक तत्व को अक्षुण्ण रखा। कृष्ण भक्ति शाखा के प्रवर्तकों ने भी श्रीकृष्ण को परब्रह्म ही माना।
इस प्रकार की उपासना-पद्धति या सेवा-पद्धति ग्रहण की गई, जिसमें भोग-राग तथा विलास की प्रभूत
सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। सब प्रकार के कृष्ण-भक्त भागवत में वर्णित कृष्ण के मधुर रूप की
ही उपासना लेकर चले। प्रेमलक्षणा-भक्ति के लिये कृष्ण के और रूप की जरूरत ही उन्होंने नहीं समझी।
विद्यापति के बाद हिंदी कृष्ण-काव्य के प्रथम कवि सूरदास थे जो वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे।
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने उनकी प्रतिभा को अपने संप्रदाय के प्रचार में लगाया। फलतः सूर ने
भी राधा-कृष्ण के माधुर्य रूप को ही अपनी भक्ति से ओत-प्रोत पदों का आधार बनाया। ये कलाकार,
संगीतज्ञ और कीर्तनकार तीनों एक साथ थे। जयदेव और विद्यापति की गीतात्मक रचनाओं की सरसता का
अवलम्ब लेकर कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने भी गीत की अजस्र भावधारा बहाई। इन कृष्णभक्त
कवियों ने अपने इष्टदेव कृष्ण की बाल-लीलाओं में ही अपने को भुला दिया।
कहा जाता है कि सूर जन्मांध थे किंतु ब्रज के इस अंध कवि ने भागवत के दशम संबंध में वर्णित
कृष्ण की लीलाओं को ही ब्रजबोली में माधुरी से स्नात छंदों में सविस्तर वर्णन किया है; फिर भी भक्ति
के रस, माधुर्य और कृष्ण के गोप-गोपियों के संग क्रीड़ारत स्वरूप की कमनीयता और सौंदर्य में वे यह
न भूले कि उनका कृष्ण अवतार है और पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक है। वात्सल्य रस में आकंठ डूबे उनके पदों
में भी यद्यपि बाल-गोपाल दही-माखन-मिश्री चुराकर खाने की लौकिक कीड़ाएँ करते हैं, तथापि यशोदा
को अपना मुख खोलकर यह भी दिखला देते हैं कि सकल ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले 'अक्षर ब्रह्म'
के स्वरूप भी वे ही हैं।
सूर के कृष्ण उनके सखा हैं, लेकिन 'पुरुषोत्तम' अवतार भी। वे गोप-गोपियों के संग कालिंदी के
पुलिनों पर रास के रचयिता भी हैं और शस्त्र ग्रहण करने वाले भी। 'सूरसागर' और 'साहित्यलहरी' उनकी
प्रसिद्ध रचनाएँ हैं ।शृंगार और वात्सल्य उनका प्रमुख क्षेत्र है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार
"सूरसागर महाकाव्यात्मक शिल्प है जिसका मूल मनोरोग 'लिरिकल' या गीतात्मक है।"
सूर की एक ही
अभिलाषा है-कृष्ण-लीला का गान । वे भक्तों में उद्धव के अवतार माने जाते हैं। समीक्षकों की राय में
"विशुद्ध काव्यात्मक दृष्टि से सूर अन्यतम हैं।" सूर के वैसे तो पाँच ग्रंथ बताए जाते हैं–'सूर-सागर',
सूर-सारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती और व्याहलो, अगर अंतिम दो ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। सूर की
भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है जिसमें कहीं-कहीं संस्कृत के भी पुट हैं। उनकी बोलचाल की भाषा में
माधुर्य गुण विद्यमान हैं।
सूरदास के कृष्णभक्ति-शाखा के दूसरे प्रमुख कवि हैं नंददास । इनके लिये किसी ने कहा है "और
कवि गढिया नंददास जड़िया।" इनके अनेक ग्रंथों की चर्चा होती है। नंददास का 'रास-पंचाध्यायी'
सर्वाधिक ख्यात ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त (1) भ्रमरगीत, (2) अनेकार्थ मंजरी, (3) मानस मंजरी,
नाममाला (4) रस-मंजरी, (5) श्यामल सगाई, (6) रुक्मिणी-मंगल (6) भाषा दशम् स्कंध आदि ।
'अमरगीत' अत्यंत लोकप्रिय काव्य-ग्रंथ है जिसमें भावुकता के साथ दार्शनिक तार्किकता का प्राधान्य है।
जहाँ सूर की गोपियाँ अपने स्त्रियोचित सरलतापूर्ण सरल निजी अनुभव की तीव्रता के सामने उद्धव के तर्कों
को ठहरने नहीं देतीं वहीं नंददास की गोपियों में बुद्धिवाद का बाहुल्य है। उन्होंने उद्धव को दर्शन की ही
तर्क-भूमि पर पछाड़ने का प्रयत्न किया है। उनमें भावुकता और हास्य-व्यंग्य की भी कमी नहीं है―
"जो उनके गुन नाहिं और गुन भये कहाँ ते
बीज बिना तरु जमें, मोहि तुम कहो कहाँ ते ।।
वा गुन की परछाँह ही, माया दर्पन बीच ।
गुन ते गुन न्यारे भये, अमल वारि मिलि कीच ।।
नंददास ग्रंथावली: प्रथम भाग-पृ०-128
नंददास के बाद पुष्टिमार्गी अष्टछाप के तीसरे महत्त्वपूर्ण कवि हैं परमानंद दास । रचना के विस्तार
और काव्य की उत्कृष्टता की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। इनके रचे हुए
छह ग्रंथ बतलाये जाते हैं― (1) परमानंद-सागर, (2) परमानंद जी के पद (3) दान-लीला (4)
उद्धव-लीला (5) ध्रुव-चरित (6) संस्कृत रत्नमाला। इन्होंने भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं का विशद
वर्णन किया है। एक उदाहरण देखें―
ब्रज के विरही लोग विचारे ।
बिन गोपाल ढगे से ठाढ़े, अति दुर्बल तन हारे।
मात जसोदा पंथ निहारति, निरखत साँझ सकारे।
जो कोउ कान्ह-कान्ह कह बोलत, अखियन बहत पनारे ।।
ये मथुरा काजर की रेखा, जे निकसे ते कारे।
परमानंद स्वामी बिन ऐसे, ज्यों चंदा बिनु तारे ।।
महाप्रभु वल्लभाचार्य के तीसरे सुयोग्य शिष्य कृष्ण दास थे जिन्हें वल्लभाचार्य ने मंदिर का
मुखिया नियुक्त कर दिया था। इनकी रचनाओं में 'जुगल मान चरित' के अतिरिक्त 'भ्रमर गीत' और 'प्रेम
तत्व-निरूपण' नामक दो ग्रंथ बताए जाते हैं। इन्होंने मुख्यत: राधाकृष्ण की शृंगारी लीला के ही पद
रचे हैं।
अष्टछाप के प्रायः सभी कवि अपनी ईश अनन्यता और तन्मयता के लिये प्रसिद्ध हैं। अष्टछाप के
पाँचवें कवि कुम्भन दास थे। ये अच्छे गायक थे और ब्रजभाषा पर पूर्ण अधिकार रखते थे। ये हदय की
अनुभूति से प्रेरित होकर अपने भावों को संगीतमयी भाषा में अभिव्यजित करते थे। इनकी रचनाएँ लगभग
स्वांतः सुखाय होती थीं। अष्ट छाप के कोई कवि राज्याश्रय के कांक्षी नहीं थे। कुम्भन दास का यह
पद देखें―
संतन कहा सीकरी सों काम ।
आवत-जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।
जिनको मुख देखत दुखे उपजत करिवे परी सलाम ।
छीतस्वामी― कवि के रूप में छी स्वामी इतने भावुक थे कि यमुना-जल में पैर देने के अपराध के
भय से उसमें प्रवेश नहीं करते थे। रेती में लोटा करते थे और कूप के जल से स्नान करते थे। छीतस्वामी
ही नहीं, अष्टछाप के सभी कवियों की वाणी में भगवद्भक्ति के अतिरिक्त श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से
पवित्र की हुई ब्रजभूमि के प्रति भी विशेष श्रद्धा प्रकट होती है। देखिये यह पद:―
हे विधना। तो सों अँचरा पसारि माँगौं,
जन्म-जन्म दीजो मोहि, याहि ब्रज बसिबो ।।
सातवें कवि हैं चतुर्भुज दास । ये कुम्भन दास के पुत्र और विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। इनके
रचित तीन ग्रंथ-'भक्ति-प्रताप' 'द्वादश यश' और 'हितजू को मंगल' उपलब्ध हैं। गृहस्थ-जीवन विताते
हुए श्रीनाथ जी की सेवा में लीन रहते थे।
अष्टछाप के अंतिम कवि थे गोविंद स्वामी । गाविंद स्वामी की एक कवि के रूप में अपनी
पहचान थी। वे ब्रज को छोड़कर बैकुंठ भी नहीं जाना चाहते थे―
'कहा करें बैकुंठहिं जाय।
जहाँ नहीं कुंज-लता, अलि कोकिल, मंद सुगंध न वायु बहाय ।
कृष्ण-भक्ति शाखा के अष्टछापी कवि वल्लभ संप्रदाय के थे। इनके अतिरिक्त चार और वैष्णव
संप्रदायों को मुख्यता दी जाती हैं-राधावल्लभीय संप्रदाय, गौड़िया संप्रदाय, पट्टी संप्रदाय और निम्बार्क
संप्रदाय । इनमें कई बड़े भावुक कवि हो गये हैं। उन्हीं में एक थे हितहरिवंश । ये राधावल्लभीय संप्रदाय
के प्रवर्तक थे। यहाँ सखी और किंकरी भाव से कृष्ण की उपासना जाती है। इनके 'हित चौरसी'
नामक चौरासी पद भाषा के संगीतमय प्रवाह और माधुर्य के कारण ही बहुत श्रेष्ठ और आकर्षक हैं।
इन्होंने 'राधा सुधानिधि' नामक एक संस्कृत का भी ग्रंथ लिखा है। हित हरिवंश जी की रचना का एक
उदाहरण देखें:
आज बन नीको हास बनायो।
पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट, मोहन बेणु बजायो।"
हित वृंदावन-ये हित संप्रदाय के प्रमुख कवि थे। इन्होंने लीला का विशद वर्णन किया है। इनकी
पद-योजना बहुत लालित्यपूर्ण है। इनकी भाषा अत्यंत सरल, प्रवाहमयी और सुव्यवस्थित है। इनके
छोटे-बड़े पैंतालिस ग्रंथ बताये जाते हैं। गदाधर भट्ट-ये गौड़िया संप्रदाय के प्रमुख कवि थे। इन्होंने
श्रीकृष्ण की वंदना के साथ ही नंद और यशोदा की भी वेदना की है। इन्होंने होली और झूला झूलने के
बड़े ही सजीव चित्र उपस्थित किये हैं।
ललित किशोरी और ललित माधुरी-दोनों कवियों ने भी श्रीकृष्ण को लेकर अच्छी रचनाएँ प्रस्तुत
की हैं। हरिराम व्यास गौड़िया संप्रदाय के थे। फिर वे राधावल्लभीय संप्रदाय में दीक्षित हो गए। ब्रज
के प्रति इनकी श्रद्धा देखने लायक है―
ऐसे ही बसिये ब्रज-वीथिन ।
साधुन के पनवारे चुनि-चुनि उदर पोसिये सीथिन ।
धूरिनि में के बीन चिनगरा, रक्षा कीजै सीतिन ।।
हरिदास नामक कवि गाने में बड़े निपुण थे और तानसेन के भी गुरु थे। इनका काव्य प्रायः संगीत में
बँधा हुआ है और राग-रागिनियों में गाने योग्य है। इनमें कला और पाडित्य कम है परंतु भाव बड़े उत्कृष्ट
हैं। 'स्वामी हरिदासजी के पद' तथा 'स्वामी हरिदास बानी' में इनके पद संग्रहित हैं।
मीरा बाई-मीरा कृष्ण की अन्यतम उपासिका थी। इनके बनाए हुए चार ग्रंथ बताए जाते हैं–(1) नरसीजी
का मायरा (2) गीत-गोबिंद-टीका (3) राग-गोविंद और (4) 'राग सोरठ के पद'। इन्होंने रैदास को
अपना गुरु बतलाया है–"गुरु मिल्या रैदास, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी।" अष्टछाप के कृष्णदास ने मीरा को
वल्लभ संप्रदाय में लाने का प्रयल किया था, जो विफल हुआ। उनका भगवान कृष्ण से सीधा माधुर्य का
संबंध था। इनके पद कुछ राजस्थानी में हैं और कुछ शुद्ध ब्रजभाषा में। बड़ी तन्मयता से लिखे इनके
पदों में प्रेम की पीड़ा है। इनके पदों में इनकी तीव्रानुभूति भरी पी है। इनके कुछ पद देखें–"बसो मेरे
नैनन में नंदलाल" या फिर "स्याम, मन चाकर राखो जी"।
एक कृष्णभक्त मुसलमान कवि रसखान अपने ढंग के अकेले कवि हैं। इनकी दो पुस्तकें– 'प्रेम
वाटिका' और 'सुजान रसखान' उपलब्ध हैं। ये एकांगी और नि:स्वार्थ प्रेम के पोषक थे। रसखान गीत
या पद के बदले कवित्त ओर सवैया लिखते थे। इनमें चलती हुई शुद्ध ब्रजभाषा मिलती है। प्रेम से
लबालब उनका यह सवैया देखें―
"मानुष हौँ तो वही रसखान बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जौ पशु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मझारन ।"
रसखान भी सर की ही भाँति वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित थे। ये सखाभाव से उपासन करते थे।
घनानंद यद्यपि समय के हिसाब से रीतिकाल में आते हैं परंतु ये कृष्णोपासक कवियों में विलक्षण
हैं। प्रेम की पीर का बड़ा मार्मिक चित्रण उन्होंने किया है।
कृष्ण-भक्त कवियों की यह महत्ता रही है कि इनके कारण ब्रजभाषा का रूप अत्यंत निखर गया
और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। कवयित्री ताज (मुसलमानिन) का नाम भी कृष्ण-भक्त कवियों में उल्लेखनीय
है। यह भी कृष्ण के रूप-गुण पर लुब्ध-मुग्ध थी। ताज की एक तन्मयता भरी पंक्ति देखें :
"नंद के कुमार कुरबान ताड़ी सूरत पै
तांड नाल प्यारे हिंदुआनी है रहूँगी मैं।"
हिंदी के आधुनिक काल में भी कृष्ण-भक्त कवियों की अच्छी-खासीशृंखला है। इनमें भारतेंदु
हरिश्चंद्र, सत्यनारायण कविरत्न, जगन्नाथ दास 'रत्नाकार' प्रभृति ने कृष्ण-काव्य का प्रणयन किया है।
कृष्ण के प्रेमी रूप की परंपरा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' तक रही है। हालाँकि हरिऔध की
कृष्ण-भावना पारंपरीण नहीं है, वह बुद्धिवाद पर आधारित है। काफी बाद में जानकी वल्लभ शास्त्री ने
'राधा' नामक एक प्रबंध-काव्य लिखा । द्वारिका प्रसाद मिश्र ने 'कृष्णायन' नामक प्रबंध-काव्य लिखा। इस
प्रकार कृष्ण-काव्य परंपरा निरवच्छिन्न रूप से अद्यतन चलती रही है।
★★★