रामाख्यान की परंपरा
राम-काव्य का आधार है राम की कथा । अस्तु मूलतः रामाख्यान की जानकारी आवश्यक है।
वस्तुतः राम-कथा के मूल स्रोत के संबंध में अनेक मत पाए जाते हैं। लासेन के अनुसार राम-कथा आर्यों
के दक्षिण-अभियान का रूपक है। बेवर रामायण को आर्य-सभ्यता के दक्षिण विस्तार का रूपक मान तो
लेते हैं पर वे कहते हैं कि राम-कथा के दो मूल स्रोत हैं-'दशरथ-जातक' और होमर का काव्य । बेवर
के मुताविक राम-कथा का मूल रूप 'दशरथ-जातक' में वर्तमान है, जिसमें न तो सीताहरण का उल्लेख
है, न राम-रावण-युद्ध का और जो शायद होमर के काव्य में वर्णित पैरिस द्वारा हेलेन के हरण तथा यूनानी
सेना के साथ होने वाले त्राय के युद्ध पर क्रमशः आधारित है। पर अनेक विद्वान इसे नहीं मानते क्योंकि
'दशरथ-जातक' स्वयं वाल्मीकि की रामकथा के बिगड़े स्वरूप को उपस्थित करने वाला है। याकोबी के
मत में रामकथा के दो भाग हैं। दोनों आगे चलकर एक हो गये हैं। प्रथम भाग अयोध्या संबंधी घटनाओं
का है और दूसरा रावण-संबंधी घटनाओं का । याकोबी के मत में प्रथम भाग ऐतिहासिक है, मूलत: इक्ष्वाकु
वंश के निर्वासित राजकुमार की कथा पर आधारित । सो, वैदिक काल के पश्चात् संभवत: छठी शताब्दी
ई० पू० में इक्ष्वाकु वंश के सूत्रों द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर राम विषयक गाथाओं की सृष्टि
होने लगी थी। इसके फलस्वरूप चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व तक राम का चरित्र लेकर स्फुट आख्यान काव्य
का प्रचुर साहित्य उत्पन्न होने लगा था जो कोसल प्रदेश तक सीमित न रहकर उत्तर भारत में फैलने लगा
था। दूसरे भाग का संबंध वैदिक देवताओं से है। तुलसी ने नाम की स्तुति वेदों से भी करायी हैं; पर
वेदों में राम-कथा नहीं पायी जाती । वेदों में उल्लिखित राम 'दाशरथी' नहीं, मार्गवेह, औपतस्विनि या
क्रातुजातेय हैं। वेद में वर्णित कृषि की देवी सीता (जिसका अर्थ हल जोतने से खेत में बनने वाला वह
चिराव भी होता है, जिसमें बीज बोया जाता है) ही विकसित होकर रामायण की सीता हो गयी। सीतापति
इन्द्र राम बन गए। इन्द्र द्वारा वृत्तासुर-बध रावण-वध में परिवर्तित हो गया और इन्द्र की कृषक प्रजा की
गायों का पणियों द्वारा होने वाला हरण सीता-हरण का रूप ले बैठा। स्पष्ट है, सीता विदेह-तनया के रूप
में प्रयुक्त नहीं है। हाँ अश्वपति कैकेय और जनक वैदेह की चर्चा अवश्य मिलती है। जाहिर है वैदिक
आर्यों को राम-कथा पूर्णत: अज्ञात थी, यह भी कहना बहुत संगत नहीं लगता।
वेद में रामायण के अनेक पात्रों, जैसे-इक्ष्वाकु, परशुराम, दशरथ, राम और सीता के उल्लेख मिलते
हैं, पर रामकथा अथवा इन पात्रों के परस्पर संबंध के नहीं। राम की गणना ऋग्वेद में दानी ओर पराक्रमी
यजमानों (अर्थात् संभवत: राजाओं) में की गयी है। ऋग्वेद में ही कृषि की देवी सीता को इन्द्र-पत्नी कहा
गया है―
"इन्द्रः सीतं निगृह्णतु तं पूषाभि रक्षतु ।
सा न पयस्वती, दुहामुत्तरामतुरां सयाम् ।।
शायद इसी अर्थ में कुमारसंभवम् में कालिदास ने बाद में सीता शब्द का प्रयोग किया है―
सखीभिरश्रोत्तरमीक्षितामिमां
वृषेव सीता तदवग्रह क्षताम् ।
ऋग्वेद में दशरथ का उल्लेख एक ऐसे राजा के रूप में मिलता है जिनके चालीस भूरे घोडै सहस्र
घोड़ों के आगे-आगे चलते थे। शतपथ ब्राह्मण और छांदोग्य उपनिषद् में अश्वपति कैकेय का विवरण
कैकेय देश के ऐसे राजा के रूप में दिया गया है, जिनके पास पंडित ब्राह्मण भी ज्ञान की शिक्षा के
लिये जाते थे। राजा जनक के, जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में रामायण के अन्य पात्रों की अपेक्षा
ज्यादा है, अनेक प्रसंग 'तैत्तिरीय ब्राह्मण' 'शतपथ ब्राह्मण' 'वृहदारण्यक उपनिषद', आदि में मिलते हैं।
सभी स्थलों में वह एक ज्ञानी राजा के रूप में चित्रित हैं। इस प्रकार अनेक पात्रों का उल्लेख वैदिक
साहित्य में हुआ है और उनके चरित्रों को प्रमुख विशेषताएँ भी निर्दिष्ट हुई हैं; परन्तु उनके परस्पर
संबंध का उल्लेख नहीं मिलता।
डॉ कामिल वुल्के यही मानते हैं कि इक्ष्वाकु वंश के सूत्रों द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर
रामकथाविषयक गाथाएँ संभवत: छठी शताब्दी ई० पूर्व तक भारत में फैल चुकी थी। चौथी शती ईसवी
पूर्व तक अनेक आख्यान भी रचे जा चुके थे। आदिकवि वाल्मीकि ने अपना काव्य संभवत: इसी समय
लिखा था। वाल्मीकि रामायण नर-काव्य के रूप में प्रकट हुआ था। इसी आख्यान के आधार पर
वाल्मीकि ने बारह हजार श्लोकों में अपना प्रबंध लिखा, जिसमें राम के निर्वासन से लेकर अयोध्या में
उनके प्रत्यागमन तक अर्थात् प्रचलित रामायण के अयोध्या कांड से लेकर युद्ध कांड तक की कथा-वस्तु
का वर्णन था। इसमें राम आदर्श मानव और वीर क्षत्रिय के रूप में प्रस्तुत किये गये थे।
बौद्ध-त्रिपिटक के आधार पर कहा जा सकता है कि राम-गाथाएँ वाल्मीकि के पहले ही प्रचलित
हो चुकी थीं; क्योंकि न तो ये गाथाएँ ही वाल्मीकि की राम-कथा पर आधारित हैं और न वाल्मीकि
रामायण ही बौद्ध-गाथाओं पर बल्कि दोनों ही किसी पुरानी राम-कथा संबंधी गाथा पर निर्भर जान पड़ती
हैं। राम-कथा का संभवत: यह प्रथम सोपान था।
अवतारवाद की प्रतिष्ठा होने पर राम को अवतार मान लिया गया । ईसवीं सन् के प्रारंभ के
आस-पास ही राम ईश्वर के रूप में स्वीकृत कर लिये गये थे। यहीं से राम-कथा के विकास का दूसरा
सोपान शुरू होता है। 'शतपथ ब्राह्मण' में अवतार अवतारवाद की यह भावना पहले-पहल परिलक्षित होती
है। दूसरी ओर राम कथा के प्रसार के साथ ही राम का महत्त्व भी बढ़ने लगा। परिणामतः पहली शताब्दी
ई० पू० से लेकर राम और उनके भाई, विष्णु के अवतार माने जाने लगे। फिर तो उस समय के तीन
प्रचलित धर्मो-ब्राह्मण धर्म में विष्णु, बौद्ध धर्म में बोधिसत्व और जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में
उनकी प्रतिष्ठा हो गयी। इस अवतारवाद के कारण रामकथा में अलौकिता की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ने लगी।
विकास की इस तीसरी अवस्था में राम केवल ईश्वर ही नहीं भक्तवत्सल भी बन जाते हैं। यह अवस्था
चौदहवीं शती के प्रश्चात् ही प्रारंभ होती है। इस समय तक राम-कथा का विकास और प्रसार लगभग
समस्त ऐसियाई देशों में हो चुका था। इसमें लोक-संग्रह की भावना का भी पूर्ण विकास हो चुका था।
हिंदी में रामकथा का सही स्वरूप प्रारंभ से ही ग्रहण किया गया था।
इस प्रकार बारहवीं शताब्दी ई. के बाद रामभक्ति पूर्ण रूप से पल्लवित होकर रामकथा के स्वरूप
पर प्रभाव डालने लगी थी। इस प्रकार रामकथा अनेक रूप धारण करते हुए शनैः शनैः संपूर्ण भारतीय
साहित्य तथा निकटवर्ती देशों में भी फैलकर एशियाई संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण तत्व बन गई। कारण यह
है कि मानव-हदय को द्रवीभूत करने की जो शक्ति राम-कथा में है, वह अत्यंत दुर्लभ है। इसके अतिरिक्त
राम-कथा में लोक-संग्रह की भावना आदर्शप्रिय भारतीय जन-मानस को शताब्दियों से प्रभावित करती चली
आ रही है। भारत की समस्त आदर्श भावनाएँ राम-कथा में, विशेषकर मर्यादापुरुषोत्तम राम तथा पतिव्रता
सीता के चरित्र-चित्रण में केन्द्रीभूत हो गयी हैं। फलस्वरूप राम-कथा भारतीय संस्कृति के आदर्शवाद का
उज्ज्वलतम प्रतीक बनकर भारत की जनता के लिये अत्यंत कल्याणकारी सिद्ध हुई है। जाहिर है, हिंदी में
राम-कथा का सही स्वरूप कतई प्रारंभ से ही ग्रहण किया जाता रहा है।
★★★