भक्ति-आंदोलन और तत्कालीन विचार-धाराएँ/अप्रत्यक्ष प्रभाव
भक्ति आंदोलन की ऐसी विशेषता थी, जिसने राजनैतिक और सामाजिक रूप से अशांत उत्तर भारत को
एकता के प्रगाढ़ सूत्र में आबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयल किया था। जिस समय उत्तर भारत में भक्ति का
नवीन उन्मेष प्रस्फुटित हुआ था, उस समय तक यहाँ मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। इस्लाम के
प्रचार के उन्मत्त अभिलाषी मुसलमान शक्ति के बल पर हिंदुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का प्रयत्न कर रहे
थे और नवीन राज-शक्ति इस कार्य में उनकी खुलकर सहायता करती थी। इस्लाम का एकता और समानता
का सिद्धांत हिंदू समाज के उस वर्ग के लिये विशेष आकर्षण का कारण बन गया था, या बन सकता था जो
उच्च वर्ग द्वारा पीड़ित, दलित या उपेक्षित था। इसीलिये उस समय यह भय उत्पन्न हो गया था कि कहीं
हिंदू-समाज का यह उपेक्षित अंग इस्लाम का वरण न कर ले।
दूसरी ओर यह स्थिति थी कि इस नवीन धर्म से बचने के लिये हिंदू-समाज ने स्वयं को संकुचित
कर रूढ़ियों के जाल में और भी अधिक कसट लिया था। इसने उसके उदार रूप को अत्यधिक संकीर्ण बना
दिया था। इसका परिणाम यह निकला कि दलित वर्ग की और भी अधिक उपेक्षा होने लगी। हिंदू समाज
के विघटन का भयावह संकट सामने आ खड़ा हुआ। ऐसी ही विषम स्थिति में हमारा नवीन भक्ति-आंदोलन
मानव मात्र की समानता का स्वस्थ संदेश लेकर जीवन-क्षेत्र में अवतरित हुआ। इसने एक तरफ तो निम्न वर्ग
के कुठित-पीड़ित मन की कुंठाओं और पीड़ाओं के शमन का मार्ग प्रशस्त किया और दूसरी ओर हिंदू-धर्म
एवं भारतीय संस्कृति का उदार रूप प्रस्तुत कर असंतुष्ट और विद्रोही जनों को दूसरे खेमे में जाने से रोका।
यह भवित-आंदोलन मूलत हिंदू धर्म और हिंदू समाज की आंतरिक असंगतियों, विकृतियों और रूढ़ियों का
उन्मूलन करने के लिये ही उठा था। यह समय की मांग थी । यदि मुसलमान यहाँ न भी आए होते, तब भी
विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया इस आंदोलन को इसी प्रकार आगे बढ़ाती । यह आंदोलन विषम स्थितियों में
भारतीय चिंतन का सचमुच स्वाभाविक विकास था।
भक्ति के विकास में विभिन्न विचारधाराओं का योग― सिद्धों का प्रभाव : समस्त भारत में
भक्ति आंदोलन के दो रूप मिलते हैं एक प्रबुद्ध विचाराकों द्वारा प्रचारित रूप; दूसरा अशिक्षित निम्नवर्गीय
साधकों द्वारा स्थापित रूप। इस रूप में सामाजिक अन्याय के प्रति विरोध का उग्र और तीखा स्वर तो अवश्य
रहा परंतु ये सिद्धगण धर्म या भक्ति का कोई सुचिंतित स्वरूप स्पष्ट नहीं कर सके जो समाज के सभी वर्गों
को समान रूप से प्रभावित कर पाता । बौद्ध धर्म के परवर्ती सिद्ध-साधकों ने इस रूप को जन्म दिया था। ये
लोग अशिक्षित होने के कारण तर्क या आस्था का अवलम्ब ग्रहण न कर चमत्कारों द्वारा ही समाज को प्रभावित
करने का प्रयत्न करते रहते थे। ये लोग एक प्रकार से सामाजिक उच्छृखलता को बढ़ावा देने वाले थे। हमें
तत्कालीन सिद्ध साहित्य में धर्म का यही रूप उपलव्ध होता है।
बौद्धधर्म के परवर्ती रूपों― वज्रयान, सहजयान तथा पाशुपत मत योग-परंपरा, सूफी मत आदि ने भी
भक्ति-काल की धाराओं को कई नई बातें दीं। बौद्धों के वज्रदान में जब तंत्र-मंत्र का प्रभाव अधिक बढ़ा
और फलस्वरूप भ्रष्टाचार का साम्राज्य बढ़ने लगा तो सिद्धों ने उन भ्रष्टाचारी सिद्धांतों का खंडन भी किया और फिर
एक सहज मार्ग का नारा बुलंद किया। ये सिद्ध जीवन की सहज प्रवृत्तियों में विश्वास करते थे। इसी कारण
इनके सिद्धांतों को सहज मार्ग कहा गया था। इन सिद्धों ने हिंदू, जैन तथा बौद्ध-साधना-पद्धतियों का विरोध
करते हुए सहज साधना का प्रचार किया। ये लोग चित्त-शुद्धि पर विशेष बल देते थे और सहजावस्था की
उपलब्धि को ही परम पुरुषार्थ मानते थे। उनके अनुसार बद्धचित्त द्वारा बंधन मिलता है और मुक्त चित्त द्वारा
मुक्ति मिलती है। जब चित्त खसम अर्थात प्रकाश के समान शून्य रूप को धारण कर समसुख' अर्थात् संतुलित
अवस्था में प्रवेश करता है तब उसे किसी भी इंद्रिय के विषयों का अनुभव नहीं होता। इस प्रकार इन सिद्धों
ने जीवन में सदाचार, चित्तशुद्धि तथा निर्मल चरित्र को बहुत महत्त्व दिया; फिर विभिन्न साधन-भार्गों में छाए
हुए भ्रष्टाचार, आडम्बर आदि का विरोध करना शुरू किया । कबीर आदि संत कवियों पर इस सहजयान का
बहुत प्रभाव पड़ा।
2. अद्वैतवाद का प्रभाव संतों पर अद्वैतवादी विचारधारा का भी काफी प्रभाव पड़ा था। इनका ज्ञान
और उपदेश काफी दूर तक अद्वैतवादी विचारधारा पर आधारित है। संत कवि माया की सत्ता और जीव-ब्रह्म
की एकता को स्वीकार करते है।। इस एकता में माया बाधक है। ज्ञान से इस माया का नाश किया जाता है।
ब्रह्म की प्राप्ति के लिये वे विशिष्टाद्वैतियों की भक्ति-भावना को तो स्वीकार करते हैं परंतु उनकी द्वैत भावना
को नहीं । इन पर बौद्धों के शून्यवाद तथा सहजयानियों के सहज मार्ग का प्रभाव सिद्धांतों की इसी एकता के
आधार पर सत्यापित होता है।
3. सूफी प्रभाव-सूफी मत के भावात्मक रहस्यवाद ने भी इस भक्ति-धारा को बहुत कुछ प्रभावित
किया। नीरस ब्रह्मवाद पर सूफी प्रेम-भावना का प्रभाव पड़ने से उसमें सरसता आ गयी थी। हठयोगियों के
नाथ-पंथ का भी भक्ति-धारा के संतों पर काफी प्रभाव पड़ा। उन्होंने हठयोग को ब्रह्म की प्राप्ति का साधन
बना लिया था, परंतु ये सारे प्रभाव लगभग गौण ही रहे । भक्ति की सरस धारा का वास्तविक विकास तो रामानंद
और वल्लभाचार्य के प्रयत्नों द्वारा ही संभव हुआ। उसमें भी सगुण भक्ति-धारा निर्गुण भक्ति-धारा की तुलना
में अधिक प्रभावकारी और व्यापक रही। निर्गुण भक्ति-धारा अपनी नीरसता के कारण साहित्य के सरस क्षेत्र
को अधिक प्रभावित नहीं कर सकी।
आगे चलकर सगुण भक्ति-धारा अपने दो रूपों-कृष्णभक्ति-धारा और रामभक्ति-धारा तथा
उनके विभिन्न उपसंप्रदायों में विभक्त हो गयी। विकास की दृष्टि से इन उपसंप्रदायों का महत्त्व गौण है,
क्योंकि ये भक्ति के मूल रूप को नहीं बदल सके। भक्ति का स्थूल रूप प्रारंभ से लेकर आजतक लगभग
एक-सा ही रहा है। उसका साध्य वही रहा जो प्रारंभ से ही था; हाँ, साधनों में अवश्य थोड़ा-बहुत अंतर
आता गया है।
इस प्रकार भगवद्भक्ति की जो लहर दक्षिण से उठी थी वह उत्तर भारत की भक्ति-परंपरा से समन्वित
होकर संपूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हो गयी । मध्यकालीन भारतीय साहित्य का मूल स्वर ही भक्ति का रहा था।
जिस समय हिंदी साहित्य ईश्वर की निर्गुण और सगुण भक्ति के स्वरों से गुंजरित हो रहा था, उसी समय बंगला,
तमिल, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, गुजराती, मराठी आदि साहित्यों का मूल स्वर इस भक्ति का ही रहा था।
स्पष्ट ही, यह भक्ति-आंदोलन एक ऐसा देशव्यापी धार्मिक तथा सांस्कृतिक नव-चेतना का उद्घोष बन गया था,
जिसने विडित हो रहे भारत को पुनः एकता के दृढ़ सूत्र में आबद्ध कर दिया था।
★★★